अतुल यादव, विशेष संवाददाता





मै सोच रहा हूं कि दक्षिणा ना मिलने पर दुआ देने वाले मुंह में बद्दुआ का कैसेट कौन रख जाता है यह तकनीकी परिवर्तन क्या फौरी प्रतिक्रिया है या यह भी हमारी परंपरा है

व्यंग: हमें गर्व है कि हम हिंदुस्तानी हैं। जहां आज भी परंपराओं को निभाने की परंपरा जिंदा है। भले ही आदमियत मर चुकी हो। पैदा होने से लेकर मरने तक यहां आदमी परंपराओं को निभाता है। सच तो यह है कि यहां आदमी परंपराओं को ही ओढ़ता है औऱ परंपराओं को ही बिछाता है। परंपराएं ही पीता है, परंपराएं ही खाता है। और खुशी की बात ये है कि इन परंपराओं को सबसे पहली गिफ्ट वह अपनी फेमिली से पाता है। भले ही सभ्यता के विकास के साथ-साथ देश में जंगल और परिवार के आकार दोनों ही छोटे हो गए हों मगर हमारी निष्ठाएं इनके आकार की चिंता किए बिना भी बदस्तूर बरकरार हैं। पहले सौ-सौ सदस्योंवाले परिवार और हजार-हजार पेड़वाले जंगल हुआ करते थे। अब दो-या-तीन पेड़ों के जंगल और दो या तीन बच्चोंवाले विराट परिवार ही देश की शोभा के लिए रह गए हैं। शरीफों के सर्किल म